सत्य सनातन परंपरा का पुण्य पर्व है मकर संक्रांति

मकर संक्रांति (14 जनवरी) पर विशेष

महावीर बजाज

मकर संक्रांति संपूर्ण मानव जाति का एक महान पर्व है। हम जिस भूमंडल पर जीवन जी रहे हैं उसे हम पृथ्वी कहते हैं, धरती माता कहते हैं। वेदों में भी कहा गया है- माता भूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया:। भूमि मेरी माता है और मैं इस पृथ्वी का पुत्र हूं। हम सब अपना जन्मदिन मनाते हैं पर मकर संक्रांति स्वयं धरती माता की उत्पत्ति होने के कारण एक विशेष पर्व है। इस दिन धरती सूर्य से पृथक होकर एक स्वतंत्र ग्रह के रूप में सूर्य की प्रदक्षिणा करने लगी। सामवेद के तांड्य ब्राह्मण में लिखे अनुसार प्रतप्त अग्निपिंड सूर्य से पृथक होकर यह धरती परिक्रमा करती हुई मघा नक्षत्र की ओर गई। धरती का सूर्य से उत्पत्ति लेकर घूमते हुए मघा नक्षत्र की ओर जाने का वैज्ञानिक ज्ञान तब भी हमारे ऋषियों को था, क्योंकि सूर्य जब पश्चिम क्षितिज पर अस्त हो रहा होता है तब पूर्वी क्षितिज पर जो नक्षत्र दिखाई देता है उसी से अगले दिन व मास की शुरुआत होती है। चूंकि उस दिन पूर्वी क्षितिज पर मघा नक्षत्र था इसलिए अगले दिन माघ मास की शुरुआत हुई। कहते हैं कि सूर्य भी अपनी गति से सबसे अधिक जितना दक्षिण में जा सकता था वह गया और यहां तक कि मकर रेखा को छू कर फिर उठना शुरू हो गया इसीलिए इस दिन को मकर संक्रांति कहते हैं। यानि आज से दिन बड़े होंगे, गरम होंगे, रातें छोटी होगी- यहीं से शुरू होता है सूर्य का उत्तरायण । सामवेद में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है । उसमें लिखा है कि अपने उत्पत्ति के बाद पृथ्वी सूर्य को नमस्कार स्वरूप उत्तरी ध्रुव की तरफ 66.30 अंश के कोण से उसकी ओर झुक जाती है और इसी स्थिति में सूर्य की परिक्रमा करने के कारण अयन, ऋतुयें और रात दिन बनते हैं। यह विज्ञान सम्मत सत्य है। जब धरती का सूर्य की परिक्रमा का एक वर्ष निर्विघ्न पूरा हुआ तो ऋषियों ने इसकी खुशी जताने हेतु वर्ष के अंतिम दिन एक बहुत बड़ा यज्ञ किया यानि पवित्र अग्नि प्रकट की और नवान्न भेंट कर आनन्द रात्रि मनाई । आनंद रात्रि को संस्कृत में ‘लौहड़ी’ कहते हैं। सिख परंपरा में अग्नि जलाकर आज भी लौहड़ी का पर्व मनाया जाता है। इस प्रकार धरती माता की उत्पत्ति का यह दिन प्रकृति प्रदत्त नव वर्ष है , न कि मानव निर्मित।

मकर संक्रांति का पर्व सूर्य पूजा का पर्व है क्योंकि धरती की उत्पत्ति का आधार सूर्य, परिक्रमा का आधार सूर्य तथा स्थायित्व का आधार भी सूर्य है। सूर्य ही हमें ताप देता है। सूर्य के उदय से ही बीज अंकुरित होते हैं, उसमें मिठास उत्पन्न होती है, फल पकते हैं, अन्न में रस पैदा होता है । इसलिए हमारी संस्कृति में सूर्य का विशेष स्थान है। यह न केवल भारत में बल्कि सारे यूरोप में भी प्रचलित था। रोम में सूर्य का एक बड़ा मंदिर था, उसे आदित्यालय कहते थे। कालांतर में आदित्यालय से दित्यालय, दित्यालय से इत्यालय और इत्यालय से आज का इटली बना। ठीक वैसे ही जैसे आदित्यवार, दीतवार, इतवार एवं रविवार बने। आज से लगभग 1900 वर्ष पूर्व जब ईसाइयत ने रोम में प्रवेश किया तब वहां सूर्य पूजा का बहुत प्रचलन था। ईसाइयों ने उस वर्ष मकर संक्रांति ( 25 दिसंबर) की सूर्य पूजा की आड़ में क्रिसमस यानि ईसा का जन्म दिवस मनाया क्योंकि तब तक ईसा के जन्मदिन का कोई पता भी नहीं था। कहने का तात्पर्य है कि यह क्रिसमस का पर्व आज का मकर संक्रांति का ही पूर्व रूप है जिसकी गणना यानि 100 वर्ष में 1 दिन बढ़ने के हिसाब से सटीक बैठती है।

हमारी संस्कृति में यज्ञ, तप एवं दान का बहुत महत्व है। मकर संक्रांति को दान पर्व भी कहा जाता है। इस दिन नदियों के पवित्र जल में स्नान कर दान देने की प्रथा रही है। मगध नरेश नंद मकर संक्रांति के स्नान के उपरांत जब दान दे रहे थे तब चाणक्य वहां पहुंचे। देश एवं राज्य की दुरावस्था से दुखी चाणक्य ने राजा नंद को कहा कि महाराज, इस दुरावस्था की परिस्थिति में आपके पास देने लायक कुछ है ही नहीं , यह मात्र छलावा है तो मैं क्या मांगू। इस बात से अप्रसन्न होकर उन्होंने चाणक्य को धक्का देकर बाहर निकलवा दिया। तब उसी दिन चाणक्य ने नंद वंश को समूल उखाड़ने की प्रतिज्ञा ली । सम्राट अशोक, हर्ष इत्यादि अनेक राजाओं के जीवन में भी यह दान पर्व देखने को मिलता है। आज भी मकर संक्रांति के दिन गांव के तालाबों या नदियों के संगम पर स्नान के पश्चात दान देकर लोग अपने तन और मन को निर्मल कर मोक्ष की कामना करते हैं।

यह विज्ञान पर्व भी है क्योंकि पृथ्वी की उत्पत्ति से कालगणना यानि अयन, मास एवं दिन का निर्धारण होता है । वेद में हमारी धरती के लिए नाम आता है भू एवं पृथ्वी अपनी उत्पत्ति से ही गोल है इसलिए पृथ्वी के आकार को भूगोल की संज्ञा देते हैं। इस बात को समझने एवं स्वीकार करने में पश्चिमी एवं अन्य सभ्यताओं को न केवल इतने वर्ष लगे बल्कि गेलीलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो तथा जीनो जैसे कितने वैज्ञानिक एवं दार्शनिकों को जान से हाथ धोना पड़ा। हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह भी बताया कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तथा एक वर्ष में परिक्रमा पूर्ण नहीं कर पाने के कारण 100 वर्ष में उसको पूर्ण करने में एक दिन बढ़ जाता है। प्रमाण स्वरूप आज से 157 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी (मकर संक्रांति) थी किन्तु आज मकर संक्रांति 14 या 15 जनवरी को मनाई जाती है।

मकर संक्रांति को आध्यात्मिक दृष्टि से मोक्ष पर्व भी मानते हैं। कपिल ऋषि के आश्रम में राजा भगीरथ के शापित पितरों का उद्धार करने हेतु मां गंगा का पृथ्वी पर गंगा सप्तमी को अवतरण हुआ किन्तु इस मनोरथ को पूर्ण करने हेतु मां गंगा मकर संक्रांति के दिन ही सागर में प्रविष्ट हुई जो गंगासागर तीर्थ के रूप में जाना जाता है। तब जाकर उन पितरों का उद्धार संभव हो पाया। इसी प्रकार भगवान परशुराम ने एक अहंकारी राजा सहस्रार्जुन की गलती के लिए क्रोध में आकर जब 21 बार उदण्ड क्षत्रियों का नाश किया तब उनके पितरों ने इस पाप के प्रक्षालन के लिए मकर संक्रांति के दिन अरुणाचल के कुंड में स्नान करने को कहा जिसे हम आज परशुराम कुण्ड कहते हैं। हम लोगों ने यह भी सुन रखा है कि इच्छा मृत्यु वर प्राप्त भीष्म पितामह ने मोक्ष प्राप्ति हेतु शर शय्या पर कई दिनों तक कष्ट सहते हुए मकर संक्रांति के दिन अपने प्राण त्यागे क्योंकि आज से सूर्य उत्तरायण होता है। साथ ही उन्होंने आज के ही दिन धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः धर्म राज्य की स्थापना हेतु इन्द्रप्रस्थ नगरी में धर्म पताका फहराने का आदेश भी दिया। इसी दिन याज्ञवल्क्य ऋषि ने प्रयागराज में गंगा के किनारे भारद्वाज मुनि को मोक्षदायिनी राम कथा सुनाई ।

ऐसे विशिष्ट पर्व के पालन में हमें गर्व बोध होना चाहिए। साथ ही देश की परिस्थिति पर भी विचार करना चाहिए। आज की स्थिति भी सतयुग के देवासुर संग्राम या त्रेतायुग के राम-रावण युद्ध या द्वापर के महाभारत युद्ध से कम नहीं है। हम लोग सिंधु के जीवन को छोड़कर बिंदु का जीवन जी रहे हैं। अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए मातृभक्ति या देश भक्ति से दूर चले जाते हैं और परायों का साथ देकर अपनी ही संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा हो जाते हैं। इस देश की मूल आत्मा हिन्दू है। हिंदू परंपराओं से ही यह देश समृद्ध बना है। इसलिए संस्कृति बचेगी तो देश बचेगा और देश बचेगा तो हम बचेंगे। संक्रांति का शाब्दिक अर्थ है बदलाव। अपने जीवन में बदलाव लायें। समाज में जो रूढ़ियां हैं, उनको इस ढंग से दूर करना होगा ताकि समाज बचे। समाज अधिक अच्छा बने। कैलेंडर बदलने से इंसान नहीं बदल जाता। मन को बदलने से इंसान बदलता है। जिस समाज के स्नेह एवं सहयोग के बल पर हम पले-बढ़े, शिक्षित होकर योग्य बने ,उस समाज के प्रति अपने दायित्व को भूलकर केवल स्वयं के या परिवार के भरण-पोषण- संवर्द्धन में लग कर कृतघ्न नहीं बनें। कोरोना के इस विषम कालखंड में वसुधैव कुटुंबकम् के भाव से सबकी सेवा करते हुए समाज एवं राष्ट्र के प्रति कृतज्ञ बनें, उसके प्रति दायित्व को निभावें। संक्रांति के पावन पर्व पर हम यह बदलाव लाने का संकल्प लें तभी देश सुरक्षित रहेगा।

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